
सुगंध भी क्या एहसास है,जहां से गुज़र जाओ इसके लाती कोई याद अपने साथ है,
तुम्हारे हाथों का जो एहसास है देखो बरसों बाद भी उसकी सुगंध मेरे हाथों के आस पास है,
प्रेम में हम सुगंधित ही तो हो जाते हैं ,सुगंध में भीगे मस्त होके एक दूजे के करीब आते हैं,
मैं गुज़रा आज यूंही तुम्हारी गली से फिर बरसों बाद,वो खिड़की जिसके पास बोगनवेलिया कि गुलाबी रंगत हमेशा रहती है,उस खिड़की में सुगंध आज भी बातें करती है,
नज़र उठाकर बार बार देखना न हुआ मुझसे,उसको देखकर मेरे अंदर भी पुरानी बंद एक खिड़की खुलती जैसी है,
खुल गई तो सुगंध दूर तलक चली जायेगी,मुझे मालूम है तुम तक जो पहुंची तो फिर तुम्हे भी सताएगी,
बरसों बरस बीत गए यूंही जिस मोड़ पे थे तन्हा हुए,तुम्हारी खिड़की से सामने ही तो दिखता है,
खैर मेरा भी रोज़ का रास्ता नहीं है,सोचता हूं मगर की उस मोड़ की तन्हा कर देने वाली सुगंध का क्या तुमसे कोई भी वास्ता नहीं है,
एक मैं हूं जो खिड़की की और फिर मोड़ की यादों से सराबोर होकर घर पहुंचा हूं,
घर !!!!!! घर की सुगंध तो तुम साथ ले गई !